गुरुवार, 2 जुलाई 2015

वक़्त की जंजीरें....

और इस तरह
वक़्त की
दुहाई देकर
कोई भला
छोड़कर जाता है
यूँ तन्हा
मँझदार में...,
सारे स्वप्न
अब तो
बिखर चुके हैं
सुनामी के बाद की
लहरों की तरह..,
.
मन करता है
नाचने का
पाकर तुम्हारी आहट,
बरबस ही
मुस्कुरा उठता है
ये
बारिश  के बाद
बने सतरंगी
इंद्रधनुष की तरह..,
और अब
मुरझा सा गया है
कम्बख़त
जरा ही देर में
तुम्हारे ओझल होते ही..,
नामुराद़
नज़्में भी अब तो
आँखों की
नमी से
सवाल करने लगी है..!
.
तुम कहते हो
कि "मैं"
श्रृंगार
क्यों नहीं लिखता..??
मैं कहता हूँ
कि
मेरे पास
कोई औचित्य तो हो
लिखने का..!
.
हमेशा ऐसी
घटती बढ़ती धड़कनों
के बीच
भला "मैं" कैसे
लिख सकता हूँ श्रृंगार..??
.
कहने को तो
जल ही जीवन है
मगर
नागफनी को भी
मुस्कुराते
देखा है बेतहाशा
मरुस्थल में..,
ठीक
इसी तरह
कल़म मोहताज़ नहीं है
नामुराद
वक्त के
चंद टुकड़ों की...!
वक्त की जंजीरें
अब नहीं
जकड़ सकती हैं
मेरे
अंतर्द्वंदित मन की
परिकल्पनाओं को..!
.
मेरी हर रचना
मेरे दिल
और
दिमाग में
उमड़ते
जज़्बातों का
दस्तावेजी प्रमाण है।
.
.
पंकज शर्मा
खैर (अलीगढ़ )
०९९२७७८८१८०

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