शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

एक अंजान सफर की दास्तां...

वक्त के साथ मैं चलता
चला जा रहा हूँ
इक़ अंजान डगर पर
जहाँ
बिखरी पड़ी हैं
शैतानी पहेलियाँ....
पहेलियाँ बड़ी ही अज़ीबोगरीब
कोई
धर्म के नाम पर
तो कोई
जाति-वर्ण के नाम पर..,

हर शख्स की काया कल्पित
हथेलियों में
कुण्डली मार बैठी हैं
ये
विषैली पहेलियाँ..,
सामाजिक
बहुरूपिये भी
पिटारा लिऐ घूम रहे हैं
अबूझ पहेलियों का..
जिनसे
निकलती हैं वो
हैवानियत से भरी पहेलियाँ
जो लील जाती हैं
मासूम जिन्दगियाँ
तार तार कर देती हैं अस्मत्
बेटियों की..,

मेरी सभ्यता...! हाँ...हिन्दी सभ्यता
भी फँसी पड़ी है
पाश्चात्य रूपी पहेली के चंगुल में
वो
तड़प रही है
छटपटा रही है
और
देख रही है
अपने वज़ूद का क़त्ल होते हुऐ
माँ भारती
आतुर है
अपनी संस्कृति के
चंद अवशेषों के साथ
खुले आसमां में साँस लेने को.....!!

ये है मेरे
अंजान सफ़र की दास्तां....!!

"पंकज शर्मा"

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब ... ये सब शायद हम भी कर रहे हैं इस अनजाने से सफ़र में ... कोई शायद इसकी भी दास्ताँ लिखेगा कभी ...

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  2. एक अंजान सफर की दास्‍तां पढ़कर बहुत अच्‍छा लगा।

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  3. एक अंजान सफर की दास्‍तां पढ़कर बहुत अच्‍छा लगा।

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  4. अच्छा लगा ये अंजाना सफर
    बधाई

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