गुरुवार, 2 फ़रवरी 2017

पोषण दर्द का


फुटपाथ पर बैठे
मैले कुचैले
कपड़ों में
कुछ एक परिवार




आँखें शून्य सी
स्वप्न
विहीन
दुनिया की रंगीनी
को छोड़




वे सभी कर रहे थे
पोषण...!
भर कर
आलिंगन में "दर्द" का




दर्द...., जैसे कि
खुदा ने
बनाकर भेजा है
सिर्फ़ उन्हीं के लिये...!!



पंकज शर्मा "परिंदा"

मुक्तक

यकीं कैसे करोगे तुम, मेरा मैं खुद को समझाऊँ,
निगाहें भर के देखोगे, जो दिल मैं चीर दिखलाऊँ,
जमाना तो हमेशा से, रहा करता बगावत है,
समय तू ही बता दे अब, अगर जाऊँ किधर जाऊँ।

अब  न  चिंगारियों  को   हवा  दीजिए।
आग  नफ़रत  की  यारो  बुझा दीजिए।
बैर  दिल से  मिटाकर  रहो  साथ  सब
जान  अपनी  वतन  पर  लुटा  दीजिए।

यक़ीनन  ख़ुदा   का  सहारा  बहुत  है।
तुम्हें  खूबियों   से   संवारा   बहुत   है।
फ़रिश्तों  ने देखा तो सजदा किया तब,
लगा    खूबसूरत   नज़ारा    बहुत   है।


गुरू  ब्रह्म  कौ  सार है, रहे  वेद  बतलाय।
खान कबीरा कह गये, गुरु गोविंद कहाय।
हर  संकट की  राह  के, बनते  खेवनहार।
ब्रह्म ज्ञान को पा रहे, जो नित शीश नवाय।


*|| पंकज शर्मा "परिंदा" ||*

आग जो रूह को जलाती है...




आग जो रूह को जलाती है
कम्बख़त हुस्न से ही' आती है।


आज महफ़िल बता रही हमको
क्यों ये' शम्मा जलाई' जाती है।


मय बड़ी चीज़ है कहो कैसे
सब ग़मों को यही भुलाती है।


ठोकरों में पड़ा रहा यारों
ठोकरें क्या नहीं सिखाती हैं।


रात भर क्यों न सो सका पंकज
शायद खुदा की' याद आती है।।

आदमी

** प्रमाणिका छंद **

अभी अभी  पता  चला
कि आदमी बड़ी बला।


न  तौलता  जुबां  कभी
न सोचता भला  कभी।


कि  नीचता  दिखा रहा
कि  द्वेष गीत गा  रहा।


बड़ी  अजीब  बात  है
करा  रहा  अघात  है।


मनुष्य  आज सो  गया
खुदा विलीन  हो गया।



पंकज शर्मा  "परिंदा"

दुर्मिल सवैया



करता नित वंदन शारद का,
                पद पंकज रोज पखार रहा।
न गुमान रहे अभिमान रहे,
                धन दौलत आज निसार रहा।
यह जीवन सार बने बगिया,
                उर को दिन रात निखार रहा।
अब मात जरा सर हाथ रखो,
                सुत पांव विभूति निहार रहा।।

पंकज शर्मा "परिंदा"