सोमवार, 16 मार्च 2015

"मासूम तितलियाँ"

कभी कभी इन काली स्याह
रातों में
जब सब आवाजें
सो जाती हैं
तो
टिक..टिक..टिक..
करते
घड़ी के काँटे
ले जाते हैं
कहीं दूर... अतीत की बगिया में
जहाँ
फुदक रही होती हैं
कुमुदनी
के फूल पर
यादों की तितलियाँ..,

तितलियाँ...जब
पंख
फड़फड़ाती हैं तो
मैं
देखता हूँ
गर्द़ की चादर को उड़ते हुऐ
जो
मेरे और अतीत के
बीच तनी थी
तितलियाँ खेल रही हैं
आँख-मिचौली
झूम रही हैं भँवरों के संग
कूदती हैं
कुमुदनी से चमेली पर बे-खटक

बगिया महक रही है फूलों
की गंध से
तभी
नोंच दिये पंख काफ़िरों ने
तड़प उठीं
तितलियाँ
रो पड़ा आसमां
कुमुदनी
मूर्छित है
चमेली भिगो रही है
आँसुओं से गालों को उसके

आज फिर...रो उठा
मैं.., जाकर
अतीत के उपवन में..!

टिक..टिक..टिक..
काँटे
भाग रहे हैं अनवरत्
और
मैं ढूँढ़ रहा हूँ
तकिये
के नीचे
वो मासूम तितलियाँ...!!

......पंकज शर्मा

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