****** ग़ज़ल ******
लब थे खामोश जिसके मुद्दत से
लिख दिया उसने नाम नज़रों से।
सुर्ख आँखों में थी हया उनके
क्यूँ लगाया है दाम नज़रों से।
उसने मय को गलत बताया है
जिसकी महकी है शाम नज़रों से।
खौफ़ होता है जिसका लोगों को
खींच लेता लगाम नजरों से।
ख़ाक में मिल गया मुहब्बत में
ये मिला है इनाम नज़रों से।
ख़ुद को हाकिम समझ लिया कैसे
लग रहे हो गुलाम नज़रों से।
ग़र निगाहें टिकी हों मंजिल पर
तो मिलेंगे मुकाम नज़रों से।
जाते जाते क़बूल कर भी लो
आप मेरा सलाम नज़रों से।
पंकज शर्मा "परिंदा"
क़त्ल होंगे तमाम नज़रों से
ग़र पिलाया यूँ जाम नज़रों से।लब थे खामोश जिसके मुद्दत से
लिख दिया उसने नाम नज़रों से।
सुर्ख आँखों में थी हया उनके
क्यूँ लगाया है दाम नज़रों से।
उसने मय को गलत बताया है
जिसकी महकी है शाम नज़रों से।
खौफ़ होता है जिसका लोगों को
खींच लेता लगाम नजरों से।
ख़ाक में मिल गया मुहब्बत में
ये मिला है इनाम नज़रों से।
ख़ुद को हाकिम समझ लिया कैसे
लग रहे हो गुलाम नज़रों से।
ग़र निगाहें टिकी हों मंजिल पर
तो मिलेंगे मुकाम नज़रों से।
जाते जाते क़बूल कर भी लो
आप मेरा सलाम नज़रों से।
पंकज शर्मा "परिंदा"
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