सोमवार, 14 मार्च 2016

***** ग़ज़ल *****

बह़र- 2122 2122 2122 212

जान लेती है कसम से ये नज़ाकत प्यार की
खेलना जुल्फों से' तेरा है कयामत प्यार की।।


हो रहे मदहोश सब क्यूँ देखकर आवो-हवा
ग़ौर कर मगरूर इंसा है शरारत प्यार की।।


चोट देखो कर रहे सब जख़्म मेरे देखकर
मैं हूँ' नादां दे रहा उनको हिदायत प्यार की।।


नफ़रतों की आग में सब खाक है अब हो रहा
रो रहा क्यूँ आज इंसा है शिकायत प्यार की।।


गर्दिशों में हैं सितारे ऐ "परिंदे" मान ले
मौत ने मज़मा लगाया या बगावत प्यार की।।




पंकज शर्मा "परिंदा"
खैर  ( अलीगढ़  )
09927788180

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