रविवार, 13 मार्च 2016

अधूरे वादे....!

इक लड़का,
पागल सा
दीवाना सा
मासूम सा
अंजाना सा


अपने घर की मुँडेर पर बैठा,
इन गलियों
और चौबारों को,
इन कूँचों और बाजारों को
देखता है,
जहाँ उसने
अपना बचपन गुजारा था।


होली के मेले में,
पकड़कर
अपने नन्हे हाथों से,
अपनी माँ का हाथ,
या फिर
यूँ कहो कि,
माँ के हाथों में
वो मासूम हाथ..,
जिसे थाम कर वो चला करती थी
बेखटक, अनवरत्.....!


उस वक्त
बेखबर था
वो लड़का,
अपनी माँ की उस अंजानी सी
मुस्कुराहट से...
जो रहा करती थी अक्सर ,
जब वो होता था साथ उसके..!


अगले बरस
फिर आया था मेला,
वही खेल और खिलौने,
बखूबी याद था उसे,
पिछले बरस
छूटे खिलौनों को दिलाने का वादा..
आँखों में था इंतज़ार
अपनी माँ का...!


मगर उसे कौन समझाये,
कि बचपन के वादे तो
कच्ची डोर की तरह होते हैं,
और
भला जाने वाले
कब लौट कर आते हैं ..!
मेरी माँ..... लौट आ....
तू लौट आ.. उन,
खिलौनों की दुकानों की तरह,
जो आती हैं हर साल,
इन गलियों और चौबारों में..!


मेरी माँ.... लौट आ.....
हाँ माँ.......बस तू लौट आ....!!!




पंकज शर्मा "परिंदा"
खैर ( अलीगढ़ )
09927788180

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