रविवार, 12 जुलाई 2015

शून्य सा अवशेष मैं....

इन शून्य विहीन आँखों से
जब निहारता में
शून्य को,
तो शून्य सा अवशेष मैं
भटक रहा
हूँ शून्य में,
इंसान भी निज स्वार्थ में
हो गया
अब शून्य है,
शून्य है बे-असर
मग़र
खो रहे सब शून्य में,
मस्तिष्क अगर हो शून्य गया
तो बिखर जाओगे
शून्य से,
आँखों में "अहम्" का
गुरूर लिऐ
खो गये अनेकों शून्य में,
सौ, हजार और लाख में
खेल है बस
शून्य का,
शून्य के इस खेल में
तुम हो रहे
सब शून्य हो,
मैं हूँ शून्य, तुम हो शून्य
सृष्ठि का उद्गम
भी शून्य,
वासुदेव भी बता गये
सब निहित है
इस शून्य में,
अर्थ विहीन, अस्तित्व रहित
ग़र है यही
शून्य तो,
आर्यभट्ट का अस्तित्व
फिर क्यों है
इसी शून्य से..???
शून्य सा "मैं"
शून्य हो
देखता बस शून्य को,
अंत है इस शून्य में
तो हो रहे सब
शून्य क्यों...???
शून्य के गुणगान में
दिल हो रहा
अब शून्य है,
शून्य सा अवशेष मैं
बस खो गया
इस शून्य में....!!




"पंकज शर्मा"
खैर ( अलीगढ़ )
०९९२७७८८१८०

ईश्वरीय हिंदी....

किसी ने देखा नहीं
ईश्वर को
सुना ही था कि
काव्य और साहित्य में ही
ईश्वर मिलते हैं
रसखान की सरोज सप्तक
सूर की
साहित्य लहरी
मीरा के पद संकलन
और आज
हिंदी के इस
उनमुक्त परिदृश्य को देख
पहली बार
ऐसा लग रहा है
कि
कहने वाले
सच ही कहते हैं।


"पंकज शर्मा"

ब़े-गाना पन.......

और आज जब मुझे
जरूरत है
मेरे चहेतों की
तो ना जाने कहाँ खो गया
वो साथ
वो अपनत्व
ठीक उसी तरह जैसे
हो जाते हैं
गायब
सींग गधे के सिर से,
आज
सभी लोगों से
मुलाकात कर
36 का आँकड़ा" कहावत
चरित्रार्थ होती नजर आई,
क्या
माँ-बाप के बाद
सब ख़तम हो जाता है
अकस्मात् ही...??
क्यों
सब रिश्ते नाते
फीके और बेमानी
नजर आने लगते हैं..??
काश...,
किसी ने
जिम्मेदारी ली होती..,
काश...,
कुछ तो होता
हमारे दरम्यान्..!
आख़िर क्यों
मेरे वज़ूद को
उछाला गया ठोकरों पर
हर बार की तरह
इस बार भी...???
अब और
कितना दूर जाओगे
मेरी आवाज की भी एक सीमा है
पीछे मुड़ कर तो देखो
मेरे लिऐ नहीं तो
इन बच्चों के लिऐ
जो जी रहे हैं
मायूसी भरी जिंदगी।
यक़ीनन आपके जेह़न में
कहीं न कहीं तो
सहानुभूति होगी मेरे प्रति,
बस्स..,
एक बार
सिर्फ एक बार "मैं"
महसूस करना चाहता हूँ उसे,
हे ईश्वर..!
तू तो सब कर सकता है ना
तेरे बाद
अब कोई ठहरता भी तो नहीं
मेरे पास..,
शायद मेरे शरीर से
तन्हाई की "बू" आती है।
कहीं ऐसा ना हो
कि मेरी साँसें ही मुझ से
बग़ावत कर जाऐं।


"पंकज शर्मा"
खैर ( अलीगढ़ )
००९९२७७८८१८०

रविवार, 5 जुलाई 2015

ईश्वर की ओर......

आँखों के जब आगे छा रहा
अंधेरा घोर..,
लेकर प्रेम की बाती तो बढ़ो
श्याम की ओर..,
बढ़ो श्याम की ओर कि सब
संकट भागें दूर.,
हर संकट के आगे खड़ौ मेरौ
माखन मिस़री चोर..,

आओ चलें सब मिलकर उस
ईश्वर की ओर..,
कहते हैं सब उनको नटवर
नंद किशोर..,
नटवर नंद किशोर कि सब के
मन के मीत..,
बरसाने की राधा जिनकी
बन गयी चाँद चकोर..,

बंसी मधुर बजावै लै माथे
मुकुट मोर..,
हर धुन पर राधा नाचे हो मन में
भाव विभोर..,
मन में भाव विभोर कि
सबके प्राण प्रिय..,
आओ चले सब मिलकर उस
ईश्वर की ओर..,



"पंकज शर्मा"

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

मौत की मुस्कुराहट....

सफेद लिबास में लिपटी
वो अंजान सी
परछाईं
काली स्याह सड़क पर
चलती चली आती है अक़्सर
बे-ख़टक मेरी तरफ..,
कहने को तो
इंसानी रूहों का
कोई वज़ूद नहीं
मग़र
मैं हो जाता हूँ
बेबस
उसकी रूहानी ताकत के आगे
न जाने क्यूँ "वो"
जकड़ लेती है अक्सर
मुझे सम्मोहन रूपी पाश में..??
.
.
आज रात वह
फिर आयी
ख़्वाब में
और चुपके से
रख गयी
कुछ दर्द भरे लफ़्ज
झोली में मेरी...!
.
.
मैंने देखी
मौत की मुस्कुराहट
उसके चेहरे पर...,
सचमुच..
कितनी हँसी थी..!!
.
.
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पंकज शर्मा
खैर (अलीगढ़ )
०९९२७७८८१८०

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

वक़्त की जंजीरें....

और इस तरह
वक़्त की
दुहाई देकर
कोई भला
छोड़कर जाता है
यूँ तन्हा
मँझदार में...,
सारे स्वप्न
अब तो
बिखर चुके हैं
सुनामी के बाद की
लहरों की तरह..,
.
मन करता है
नाचने का
पाकर तुम्हारी आहट,
बरबस ही
मुस्कुरा उठता है
ये
बारिश  के बाद
बने सतरंगी
इंद्रधनुष की तरह..,
और अब
मुरझा सा गया है
कम्बख़त
जरा ही देर में
तुम्हारे ओझल होते ही..,
नामुराद़
नज़्में भी अब तो
आँखों की
नमी से
सवाल करने लगी है..!
.
तुम कहते हो
कि "मैं"
श्रृंगार
क्यों नहीं लिखता..??
मैं कहता हूँ
कि
मेरे पास
कोई औचित्य तो हो
लिखने का..!
.
हमेशा ऐसी
घटती बढ़ती धड़कनों
के बीच
भला "मैं" कैसे
लिख सकता हूँ श्रृंगार..??
.
कहने को तो
जल ही जीवन है
मगर
नागफनी को भी
मुस्कुराते
देखा है बेतहाशा
मरुस्थल में..,
ठीक
इसी तरह
कल़म मोहताज़ नहीं है
नामुराद
वक्त के
चंद टुकड़ों की...!
वक्त की जंजीरें
अब नहीं
जकड़ सकती हैं
मेरे
अंतर्द्वंदित मन की
परिकल्पनाओं को..!
.
मेरी हर रचना
मेरे दिल
और
दिमाग में
उमड़ते
जज़्बातों का
दस्तावेजी प्रमाण है।
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पंकज शर्मा
खैर (अलीगढ़ )
०९९२७७८८१८०