मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

काम तुम बेहिसाब कर दो ना,,,!

******** ग़ज़ल ********
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काम तुम बेहिसाब....., कर दो ना
छूके मुझको गुलाब.., कर दो ना।
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ग़र मुहब्बत है इक बुरी..., आदत
मेरी आदत खराब...., कर दो ना।
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आरज़ू इक........, यही है बस मेरी
रुख़ जरा बेनक़ाब...., कर दो ना।
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धड़कनों के सवाल........., इतने हैं
इक मुकम्मल जवाब कर दो ना।
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रोशनी से चराग़............., यूँ बोला
सामने आफ़ताब कर......, दो ना।
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थक चुका हूँ.. मैं उलझनों से अब
एक सुलझी किताब.. कर दो ना।
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है गुज़ारिश ऐ.. ज़िन्दगी...., तुझसे
अब तो मेरा हिसाब.. कर दो ना।
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*|| पंकज शर्मा "परिंदा" ||*

देखकर तुम न यूँ अब नकारो मुझे...

**** ग़ज़ल ****

देखकर तुम न यूँ अब...., नकारो मुझे
अक़्स हूँ मैं तुम्हारा......, सँवारो मुझे।

दाग दामन पे' मेरे.., लगे हैं..., अगर
हक तुम्हारा है तुम ही.., निखारो मुझे।

हूँ परेशां बहुत.., दर्द से..., इस क़दर
इल्तिज़ा है यही तुम....., दुलारो मुझे।

जिंदगी इक जुआ है.., ये माना मगर
आसरा बस तुम्हारा....., न हारो मुझे।

तोड़ दो बंदिशें सब., मुहब्बत की तुम
नाम लेकर के मेरा......, पुकारो मुझे।

ख़ून दिल का पिला कर लिखी ये ग़ज़ल
कह रही आप सब से...., निहारो मुझे।

इक "परिंदा" सफ़र का,, मैं नादान सा
छोड़ दो बेज़ुबां हूँ......., न मारो मुझे।

पंकज शर्मा "परिंदा"

आखिर तो हूँ एक "परिंदा"

*गज़ल*
बह्र -- फेलुन*4

कब तक यूँ दीदार करूँगा
आ जाओ श्रृंगार करूँगा।

एक नज़र ग़र देख लिया तो
कुछ पल आँखे चार करूँगा।

दुनिया के सब छोड़ झमेले
जी भर तुमसे प्यार करूँगा।

धोखे, वादे, झूठ, तसल्ली
खुद को अब तैयार करूँगा।

छोड़ दिया ग़र तन्हां मुझको
खुद पर अत्याचार करूँगा।

ठान लिया है मैंने दिल में
ना अब कोई रार करूँगा।

आखिर तो हूँ एक "परिंदा"
पर्वत, दरिया, पार करूँगा।

लौ मुहब्बत की जलाना चाहता हूँ..

****** ग़ज़ल ******

नफ़रतों को मैं.., मिटाना चाहता हूँ
लौ मुहब्बत की जलाना चाहता हूँ।

इम्तिहां मुश्किल बड़ा है इश्क़ का ये
इक इसे भी आजमाना चाहता हूँ।

कोई तो आकर के पूछे हाल क्या है
दर्दे-दिल मैं सब बताना चाहता हूँ।

झूठ से जो रंगे पत्थर हैं उन्हें मैं
आइना सच का दिखाना चाहता हूँ।

हों उजाले हर तरफ बस प्रेम के अब
जुगनुओं सा टिमटिमाना चाहता हूँ।

जो हुनर सीखा है मैंनै जिंदगी से
गीत ग़ज़लों में सुनाना चाहता हूँ।

बेजुबाँ जो हैं निशाने पर किसी के
उन "परिंदों" को बचाना चाहता हूँ।


जन्म जला सा हूँ शायद...

**** ग़ज़ल ****

जन्म जला सा हूँ शायद
इक़ अंधियारा हूँ शायद।

डग मग जीवन की नैया
दूर किनारा हूँ शायद।

बर्तन खाली हैं यारो
वक़्त का मारा हूँ शायद।

रिश्ते नाते बेमानी
आंगन सूना हूँ शायद।

देख के हालत हंसते हो
एक तमाशा हूँ शायद।

ढाई आखर लिख दो बस
कागज़ कोरा हूँ शायद।

मोल मेरा भी भर लो कुछ
जिंदा मुर्दा हूँ शायद।

देख पपीहा शोर करे
बादल काला हूँ शायद।

लोग "परिंदा" कहते क्यूँ
मैं परवाना हूँ शायद।



आपके दिल में क्या है बता दीजिए...

🌻🌻🌻🌻 *ग़ज़ल* 🌻🌻🌻🌻
*बह्र- 212 212 212 212*
*फ़ायलुन फ़ायलुन फ़ायलुन फ़ायलुन*
*काफ़िया*- आलिफ़ (आ स्वर)
*रदीफ़*- दीजिए
*तरन्नुम*- अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों ।।

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आपके  दिल  में  क्या  है  बता दीजिए
इस मुहब्बत का कुछ तो सिला दीजिए

हमने  ज़ुर्मे-मुहब्बत तो कर  ही  दिया
आप इस ज़ुर्म  की अब  सज़ा दीजिए।

इश्क़  के  मर्ज़  से  कैसे  तौबा  करूँ
देख  कर नब्ज़  मुझको दवा  दीजिए।

बोसे  नज़रों   से  ले  लूंगा  मैं  आपके
चाँद सी अपनी  सूरत  दिखा दीजिए।

चांद में  दाग़  है  ऐसा  कहते हैं  सब
यह वहम आप सबका  मिटा दीजिए।

मुंतज़िर  हैं   सभी  आज   दीदार  के
रुख से  परदा  जरा सा  हटा दीजिए।

हूँ   मैं   मासूम  सा  और  नादान  भी
दिल  में अपने मुझे  दाख़िला दीजिए।

लोग दीवाना  कहते  हैं  बस आपका
आप अपनी  मुहऱ  भी  लगा दीजिए।

जिसको चाहा है  शिद्दत से  मैंने ख़ुदा
उसको अहसास कुछ तो करा दीजिए।

आपका रुख़ मुक़म्मल ग़ज़ल हो गया
मुस्कुराकर  नया   काफ़िया  दीजिए।

इल्तिज़ा  है  मेरी  आज  आग़ोश  की
बंदिशें  दरमियां  की   मिटा  दीजिए।

फ़ुरसतें  ग़र  नहीं  है  मुलाक़ात  की
दूर से ही  झलक इक दिखा दीजिए।

काफ़िला  बादलों  का   चला  जाएगा
गेसुओं  को  ज़रा  सा  हिला  दीजिए।

है  नज़ाकत,  शराफ़त   या  जादूगरी
हो  सके तो  हमें  भी  सिखा  दीजिए।

ज़िन्दगी भर की यह प्यास बुझ जाएगी
आप आँखों  से  सागर  पिला दीजिए।

आपके  शह्र  में   हूँ  भटकता   हुआ
मेरी मंज़िल का मुझको  पता दीजिए।

है  गुज़ारिश  हमारी  अगर  मान  लें
प्यार में मत  किसी को दग़ा दीजिए।

आँखें   पत्थर   हुईं   सूख  आंसू   गये
ज़ख्म देकर कोई फिर रुला  दीजिए।

ख्व़ाहिशों  का  गला  घोंट दूंगा  मगर
ख़त  मेरे  सब  पुराने  जला  दीजिए।

सिसकियां हिचकियां और सरगोशियां
आज इनके सिवा कुछ भी गा दीजिए।

खाक़ हो  तो  चुका  है  मेरा आशियाँ
अब  न  चिंगारियों  को  हवा दीजिए।

है    अंधेरा   घना   जिंदगी   में   मेरी
अपनी  मुट्ठी  के जुगनू  उड़ा दीजिए।

बैर दिल  से  मिटा  साथ  रहिए सभी
आग नफ़रत की  यारो बुझा दीजिए।

दर्द की  रात है  जो  कि कटतीं  नहीं
गाके  लोरी  मुझे   माँ  सुला  दीजिए।

बस  गुज़ारिश  ख़ुदा  से  मेरी  है यही
अपनी रहमत को सब पर लुटा दीजिए।

*|| पंकज शर्मा "परिंदा" ||*


आँखें कुछ ख़फ़ा सी हो गयी हैं,,,

आज रात
हुआ यूँ कि,
मैं कर रहा था कोशिश
नाक़ाम सी,
सोने की...!
बाईं करवट से कुछ
घुटनों को मोड़कर,
आद़तन
इन आखों को बंद कर,
मग़र
पता नहीं क्यूँ...???
ये आँखें शायद्
कुछ ख़फा सी हो गयी हैं,
या लगता है
कि यूँ ही बस खुराफ़ात कर
ख़ाम-खा
हमें सता रहीं हैं,
या ख़ुदा
तीन बज गये सुबह के,
हैरत में हूँ बड़ी
कि इनको क्या हुआ...??
पहले तो ऐसी नहीं थीं,
बड़ी ही नज़ाकत से
"निंदिया" को
यूँ आगोश में समेट लेती थीं,
कि जैसे
घुप्प् अँधेरे से
सहमा हुआ इक छोटा बच्चा
माँ के आँचल में
दुब़क जाता है...!
आजकल
ना जाने क्यूँ..? ज़माने की तरह
कम्ब-अ-ख़त्
बहुत ज़ुलम कर रही हैं,
ये आँखें शायद
कुछ ख़फा सी हो गयीं हैं...!!

.........पंकज शर्मा